ऐतिहासिक, धर्मिक इमारतों-कुओं, तालाबों, छतरियाँ व बावड़ियाँ, किले आदि तथा इमारतों पर अंकित, मिटती जा रही भित्ति चित्राकला का छायांकन नगर-नगर, गांव-गांव, गली-गली, घर-आंगन जाकर कर रहे हैं। इसके साथ-साथ लकड़ी की कला, लोक कला, लुप्त होती पारम्परिक वस्तुओं को कैमरे में संजो रहे हैं, यह एक बड़ी व गौरव की बात है। यायावर ओमप्रकाश कादयान ने देश के कोने-कोने की यात्रा की है। उन यात्राओं के अविस्मरणीय क्षणों को अपने कैमरे में कैद किया है। )
-- डॉo सत्यवान सौरभ,
लोक संस्कृति मर्मज्ञ छायाकार ओम प्रकाश कादयान ने जिन्दगी के उस सत्य को भी
रूबरू किया है जिससे हम आज संघर्ष कर रहे हैं। तन पर लिपटा -फटा चीथड़ा, पैरों में खूँसड़े,आंखों से पीड़ा के बहते आंसूं रेत में बिखरे लोहे में जिन्दगी तलाशते बचे या दयनीय स्थिति में आंखे, बोझ तले दबा बचपन, को इन्होने छायाचित्रों में ढाला है।डॉ अनिल गौड़ के अनुसार कुछ छायाकार ऐसे होते हैं जो अपनी छायांकन कला क्षमता से कम समय में अधिक नाम कमा कर लोकप्रिय हो जाते हैं। ओमप्रकाश कादयान देश के उन छायाकारों में से एक हैं जिन्होंने छायांकन की दुनिया में कम समय में अपनी विशेष व सम्मानीय जगह स्थापित की है। मात्र नाॅरमल लैंस वाले कैमरे से जो ये कार्य कर रहे हैं वे अति सराहनीय तथा साहसिक है।
छायांकन की दुनिया के परिचित हस्ताक्षर ओमप्रकाश कादयान अपनी जमीन से जुड़े हुये चित्रकार, छायाकार, लेखक हैं तथा अन्य विषयों के साथ-साथ प्रकृति से भी विशेष लगाव रखते हैं। श्री कादयान ने प्रकृति को बड़े नजदीक से निहारा है। कल-कल, छल-छल बहती नदियों का सरस-मधुर संगीत, झर-झर झरते निर्झर का मस्ती भरा गान, चीड़-देवदार के सघन वृक्षों की झूमती लचकती, शोख शाखाओं से टकराकर लहराती, मन को शान्ति प्रदान करने वाली हवा, कादयान को बड़े आकर्षित करती हैं।
प्रकृति अपने सांगीतिक कैनवास में जो रंगोत्सव रचती है उन सभी रंगों को इन्होंने अपने
छाया चित्रों में समेटा है। कादयान के चित्रों में उदय या अस्त होते भास्कर की स्वर्णिम रश्मियों को मनोरमता है। रंग-बिरंगे पूफलों की सुन्दरता, गुलाब की कोमल पंखुड़ियों पर पड़ी ओस की बूंदों की निर्मलता है। सरिता के बहते निर्मल जल की निश्छलता, पहाड़ों की कठोरता व सत्यता, मनोहारी घाटियों की पावनता बर्फ से ढके पर्वत-शिखरों की उज्ज्वलता है।
इनके छायाचित्रों में जिस तरह ग्रामीण संस्कृति व सुन्दरता उभरकर आती है वह किसी
संवेदनशील मन वाले, तेज दृष्टि वाले व निश्छल आत्मा वाले छायांकन से ही संभव है। हरियाणवी लोक जीवन का यथार्थ चित्राण जो इनके चित्रों में झलकता है वह कम ही छायाकारों ने समेटा है। इनके चित्रों का एक-एक रेशा अपनी कहानी सुनाता है। पनघट की चहल-पहल, उपले बनाती, दूध् बिलौती या चक्की पीसती, गोबर के टोकरे को ले जाती, बच्चे नहलाती, घास की गठरी लाती, रोटी बनाती, खेतों में काम करती औरतें व हल चलाता, कस्सी बजाता किसान, खेलते हुए या जोहड़ सरोवरों में नहाते बच्चों आदि के दृश्य उन्होंने अपने कैमरे में कैद किये हैं।
उजाड़ खण्डहरों, कलात्मक भवनों, सुनसान,पुरानी हवेलियों की तक के पफोटे खींचे हैं। ये सांस्कृतिक धरोहर को कैमरे में कैद करने में जुटे हैं। हरियाणाभर की ऐतिहासिक, धर्मिक इमारतों-कुओं, तालाबों, छतरियाँ व बावड़ियाँ, किले आदि तथा इमारतों पर अंकित, मिटती जा रही भित्ति चित्राकला का छायांकन नगर-नगर, गांव-गांव, गली-गली, घर-आंगन जाकर कर रहे हैं। इसके साथ-साथ लकड़ी की कला, लोक कला, लुप्त होती पारम्परिक वस्तुओं को कैमरे में संजो रहे हैं, यह एक बड़ी व गौरव की बात है। यायावर ओमप्रकाश कादयान ने देश के कोने-कोने की यात्रा की है। उन यात्राओं के अविस्मरणीय क्षणों को अपने कैमरे में कैद किया है। अपने चित्रों के माध्यम से हरियाणवी संस्कृति की झलक विदेशों तक पहुंचाई है।
जैसलमेर का मरुमेला, जयपुर का हाथी उत्सव, बीकानेर का उंटोत्स्व, पुष्कर मेला,
महाकुम्भ मेला, ताजोत्सव ;आगराद्ध हो या सूरजकुण्ड ;फरीदाबाद हस्तशिल्प मेला इनकी यात्रा से अछूता नहीं रहा है। समुन्द्र के तट हो, मरूटीलों, पहाड़, गहरी घाटियाँ या हिमालय व सतपुड़ा के जंगल सब इनकी यात्रा का हिस्सा होते हैं तथा रोमांचकारी, भयानक, सुन्दर, सभी दृश्यों को अपने कैमरे में कैद करते हैं तथा यात्रा वृत्तांत लिखते हैं।
लम्बी यात्राएं करना, साहित्य सृजन, पेटिंग करना व संगीत सुनना इनकी रूचि का हिस्सा हैं। देश का कोई ऐसा बड़ा अखबार या पत्रिका नहीं जहां इनके चित्र या रचनाएं न छपी हों। देश की प्रमुख पत्रिकाओं तथा राष्ट्रीय समाचार पत्रों में अब तक इनके 5000 से अधिक आलेख व अन्य रचनाएं, पन्द्रह हजार से अधिक छायाचित्र तथा 2000 से अधिक रेखांकन छप चुके हैं। देश की स्तरीय पत्रिकाओं व साहित्यिक पुस्तकों के कॅवर फोटो भी इनके नाम से छपते हैं।
आकाशवाणी केन्द्रों तथा दूरदर्शन केन्द्रों से अनेक वार्ताएं व अन्य कार्यक्रम प्रसारित हुए हैं तथा म.द.वि. के एम.ए. ;हिन्दीद्ध पाठ्यक्रम में इनकी कहानी व कविताएं पढ़ाई जा रही हैं। खुद श्री कादयान व इनके साहित्य पर कुरूक्षेत्र व मुलाना विश्वविद्यालयों से तीन एम.पिफल. हो चुकी हैं। इनकी विशेष साहित्य सेवाओं के लिए हरियाणा साहित्य अकादमी ने 51000/- रूपये के विशेष अकादमी सम्मान से मुख्यमंत्राी व राज्यपाल द्वारा सम्मानित किया। इन्हें पंजाब कला साहित्य अकादमी द्वारा भी जालन्ध्र में दो बार सम्मानित किया गया। साहित्य कला, छायांकन, चित्रांकन क्षेत्रों में श्रेष्ठ योगदान के लिए श्री कादयान को अब तक करीब दो दर्जन संस्थाओं द्वारा सम्मानित किया जा चुका है।
‘आन्ध्यां की लाट्ठी’, हम पंछी नील गगन के, हरियाणा की सांस्कृतिक ध्रोहर, कैक्टस
के पूफल हरियाणा की सांस्कृतिक विरासत, हरियाणा के लोकगीत सहित ओमप्रकाश कादयान की विभिन्न व विधाओं पर अब तक आध दर्जन पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। लोक साहित्य में महत्त्वपूर्ण कार्य कर रहे हैं। वैसे तो इन्हें प्रकृति व ग्रामीणांचल से जुड़े दृश्यों का ललित कला में चित्राण करने में विशेष आनन्द आता है, किन्तु इनकी ‘मार्डन पैंटिंग’ भी गूढ़ अर्थ लिये होती है। ओमप्रकाश कादयान ने बताया कि वो आज
जिस मुकाम पर पहुंचे हैं उसमें माँ फूलकौर का बहुत बड़ा हाथ है। माँ-बाप दोनों ही चाहते थे कि मैं नया कर दिखाऊँ। पिता स्वाभिमानी कर्मठ, सहयोगी प्रवृत्ति के थे। यही सीख इन्होंने पिता से ग्रहण की। इस कार्य में इनकी धर्म पत्नी डाॅ. सुमन कादयान इनका पूरा साथ दे रही हैं जो खुद फोटोग्रापफी में रूचि रखती है।
श्री कादयान ने कहा कि अच्छे दृश्यों के लिये घुमक्कड़ी आवश्यक है। जितना हम घूमेंगे उतने ही अच्छे चित्र हमें प्राप्त होंगे। दुलर्भ चित्रों हेतु संघर्ष करना पड़ता है। दूसरा, छायाकार की दृष्टि पर भी निर्भर करता है, उसकी दृष्टि क्या देखती है। कई बार हमें अच्छे दृश्य पकड़ने के लिए कड़ी मेहनत करनी पड़ती है। कभी, पानी में या कीचड़ में घुसना पड़ता है, कभी पेड़ों पर, इमारतों पर चढ़ना पड़ता है। कभी कांटो में घुसना पड़ता है। कभी एक अच्छे फोटो के लिए लम्बा इन्तजार करना पड़ता है।
श्री कादयान ने नष्ट होती हमारी धरोहरों के बारे में चिन्ता व्यक्त की। इन्होंने कहा कि एक तरफ तो हमारी ऐतिहासिक धरोहरें किले, छतरियां, बावड़ियां, कुएं, भित्ति चित्रा नष्ट हो रहे हैं। दूसरी ओर हमारा लोक साहित्य, जो अभी तक लिखित रूप में नहीं आया है, वह लुप्त होता जा रहा है। आजकल पत्र-पत्रिकाएं भी व्यवसायिक होती जा रही है। इनमें प्रकृति, कला व संस्कृति से सम्बन्धित छायाचित्रों की बजाये तड़क-भड़क व अर्धनग्न चित्रों को जगह मिलती है, जिसे हम अच्छी परम्परा नहीं कह सकते। युवा पीढ़ी अगर हमारी लोक संस्कृति की और ध्यान दे तो इसको मॉडर्न उपकरणों के साथ बचाया जा सकता है.
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--- डॉo सत्यवान सौरभ,
रिसर्च स्कॉलर,कवि,स्वतंत्र पत्रकार एवं स्तंभकार,
आकाशवाणी एवं टीवी पेनालिस्ट,
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