साध्वीश्री ने आगे कहा कि पर्युषण महापर्व हमारे जीवन में बहुत आए और बहुत गए। एक-एक करके ये दिन भी हमारे पूरे हो जाएंगे। क्योंकि समय कोई हमारी जेब में पड़ा धन नहीं है कि उसे जब चाहा खर्च किया और जब चाहा वापस जेब में डाल दिया। उन्होंने कहा कि गंगा के प्रवाह को रोका जा सकता है, समुद्र की उत्ताल तरंगों को स्तंभित किया जा सकता है, बहती हवा को भी रोका जा सकता है। परंतु समय के प्रवाह को नहीं रोका जा सकता है, समय तो हमारे हाथ से गया तो गया। इसलिए यह सोचना है कि कल का दिन मैंने जिया या फिर खोया। यदि मैंने जप-तप,परोपकार,सेवा सहयोग आदि में अपना दिन लगायातो समझो कि आपने दिन जिया। और यदि गप्पों में विवाद में.लड़ाई में,क्रोध-मान-माया-लोभ में संसार और संसार की उलझनों में व्यर्थ घूमने फिरने के चक्कर में यदि आपने अपना दिन बिताया तो समझो कि यह दिन आपने खो दिया।
पर्युषण महापर्व के तीसरे दिन बुधवार से कल्पसूत्र का वांचन प्रारंभ किया गया। उन्होंने बताया कि कल्पसूत्र दशाश्रुतस्कंध में से ग्रहित भद्रबाहु स्वामी की रचना है, इस पर डेढ़ सौ टीकायें लिखी गई हैं, जिसमें सर्वपर्थम खरतरगच्छ के जिनप्रभसूरि ने संदेह विषौषधि नामक टीका लिखी। कल्पसूत्र में तीन अधिकार का वर्णन किया है, प्रथम व अंतिम तीर्थकारों के साधुओं का आचार,पश्चात जिनेश्वरों का जीवन चरित्र। दूसरी गणधरादिकों की स्थिविरावली, तीसरा साधु समाचार। मनुष्य एकाग्रचित से श्रद्धापूर्वक सात,ग्यारह अथवा इक्कीस बार कल्पसूत्र का श्रवण करता है तो वह संसार सागर से तिर जाता है।
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