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कन्नौज,हिन्दुस्तान की आवाज़,अनुराग चौहान

कन्नौज। जातीयता का निजत्व भाषा से ही होता है इसलिए उसे मातृपद से विभूषित कर मातृभाषा अर्थात जातीय अस्मिता की जन्मदात्री माना गया है इतिहास के क्षेत्र में यदि इसी प्रकार हम स्वभाषा की उपेक्षा करते रहे तो एक दिन अपनी एतिहासिक पहचान से भी हाथ धो बैठंेगें। इस दृष्टि से हिंदी भाषी समाज के समक्ष हिंदी के माध्यम से जन चेतना का स्वरूप निर्धारण का एक प्रश्न एक चुनौती है राष्ट्र के व्यक्त्वि निर्माण में हिंदी ने क्या किया राजनीतिक संकट में उसने किन उपायों से काम किया तथा सामान्यजन के ह्रदय में उसने किस सावधानी से स्वभिमान जगाया।
जिस समाज ने हिंदी को माध्यम बनाकर अपने मनोभावो और संस्कारो को मुखरित किया है उसकी सनातन प्रकृति के साथ इतिहास निरूपण का तालमेल ही उसकी वैज्ञानिकता का प्रमाण हो सकता है। इस दिशा में हिंदू अवतारवाद और उन अवतारों की मान्यता का सर्वेक्षण करके हिंदू मानसिकता को समक्षने के लिए कुछ निष्कर्ष निकाले जा सकते है मुख्य अवतारो व्यापक और स्थाई मान्यता उन्हीं अवतारो को मिली है जो शक्ति और तेज के प्रतीक रहे है। वुद्व के आयुध विहीन स्वरूप की उपासना से इस देश में काम अधिक समय तक नहीं चल सका इसलिए उसको त्याग देना पडा। वुद्व की उपासना हमें उत्तर पश्चिम से होने वाली आक्रमणों को रोकने में विफल करती रही और मध्य एशिया के जिन भागों में बौद्व धर्म का प्रवेश हुआ था वे भाग भी मुस्लिम आक्रमण से अपनी रक्षा नहीं कर सके। उनके प्रभाव में वह गए। भारतेन्दु को हिंदी प्रेमी आधुनिक काल का प्रवर्तक कहते है किन्तु भारतेन्दु का संजोषण उसी परम्परा ने किया था जिसने सूर, तुलसी, कबीर आदि कवियों को जन्म दिया था जिस तरह धर्म का आधार ही उन कवियों को समक्ष उत्पन्न करता है उसी प्रकार भारतेन्दु की रचना भी धार्मिक प्रष्ठ भूमि से जुडी है। हिंदी की इतिहास परम्परा को अवधारणा ने ही सलीव पर चढा दिया है इस धर्म संकट के कारण भारतेन्दु के विचारों को पूर्ण रूप से स्वीकारने की शक्ति हम में नहीं रही। वलिया में दिए गए पाश्चात्मक भाषण में उन्होने स्पष्ट कहा था कि हिंदी हिन्दू और हिन्दुस्तान की त्रिके संधि में ही इस देश के निवासियों का कल्याण हो सकता है। इनमें से किसी पक्ष की उपेक्षा अनर्थ का कारण बन सकती हैं। हिंदी शब्द के कारण इस पद की अब तक चर्चा नहीं की गयी कुछ विद्वानों ने बार-बार स्पष्ट करने का प्रयत्न किया कि हिंदी शब्द धर्मवादी न होकर देश की संस्कृति का प्रतीक है किन्तु हिंदू ही उनका वखान करते है अन्य लोग इसे नीचे नहीं उतार पाते। वोट की राजनीति के कारण जब गांधी जी ने राम राज्य को उन्हीं अनुयायीयों द्वारा मान्यता नहीं मिल सकी तो हिंदू को राष्ट्रयतावादी शब्द के रूप में कौन स्वीकार करेगा। हिंदी खासकर पुरानी हिंदी की उपेक्षा आमतौर से इसी आधार पर हीं रहीं है कि वह हिंदुओं की धर्म भाषा है इसमें लिखा गया साहित्य धार्मिक अथवा सांमप्रदायक है आगे चलकर जब देश में सेक्लरिज्म का पूरी तरह वोल-वाला हो जायेगा तब तुलसी और सूर धार्मिक कवि माने जायेंगे अर्थात उनकी रचनायें संविधान की मूल प्रकृति के विरूद्व होने के कारण पाठय क्रम से बाहर कर दी गयी हिंदी भाषी समाज की इतिहास चेतना का अवलोकन करने से स्पष्ट होता है कि हिंदी के कवि मनीषियों ने देश के राजनीति के क्षेत्र में भी सक्षम नेतृत्व प्रदान किया है इस तथ्य को आड में रखकर हिंदी के कवियों के सामाजिक और धार्मिक सुधारों को ही प्रमुखता दी गयी है इस विचार धारा से यही भाव लक्षित होता है कि हिंदू समाज सनातन काल से रोग गृस्त एवं त्रुटियों का भण्डार रहा है वाहय आक्रान्तो का प्रतुरोध करने वाले तथ्यों की उपेक्षा को इतिहास लेखन नीति बना लेने के परिणाम स्वरूप सामान्यजन का स्वाभिमान जगाने वाला भाव उपेक्षित हो गया है। हिंदी रचनाकारों ने सभी क्षेत्रों में समाज को नेतृत्व प्रदान किया है समस्याओं का सामना करने के लिए उन्होंने अनेक संस्थानों की स्थापना की थी। साधु, संत, पंण्डे, चारण, पुरोहित, भाट, नट आदि अनेक प्रकार के लोक गायक और लोक नर्तको की स्वयं भू संस्था में विभिन्न कार्य क्षेत्र में अपने दायित्व की कुशलता के साथ संम्पादित करती रही है किसी समाज की जीवन शक्ति ऐसे ही कार्यो से जारी है इसके विपरीत जो समाज अदिनी सृजन क्षमता से बंचित हो जाता है वह मृतक वत है मुस्लिम शासक इन संस्थाओ तथा इनको उत्पन्न करने की क्षमता को नष्ट नहीं कर सके थे। व्रिटिश राजनयक संस्थाओ के उच्छेदन को अपना धेयय मानते थे भारतीय समाज की लौह पारी को जन्म देने वाली समाज रचना और उसकी शक्ति को पोषित करने वाली संस्थाओ को तोडने का मंत्र देने के लिए वे अंग्रजी रूपी मंथरा को हमारे बीच सदा-सदा के लिए छोड गए है स्वभाषा और स्वासाहित्य को संम्बन्धित करने को कई संस्थाओ के कट जाने के कारण हम अपने अतीत की पहचान से उदासीन हो गए।
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