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हिन्दुस्तान की आवाज, हेमेन्द्र क्षीरसागर, लेखक व विचारक

देष मेें कहने मात्र को महामहिम राष्ट्रपति का चुनाव गैर दलगत प्रणाली से संपन्न होने की पंरपरा रही है। इसी रिवायत की कवायद में बस मोहर लगाने पार्टी का निषान और कान फोडू प्रचार नहीं होता बाकि सब कुछ आम चुनावों जैसे दिखाई पडता है। यहां भी पक्ष-विपक्ष दमदारी से अपनी प्रतिमूर्ति को देष का राष्ट्राध्यक्ष बनाने में कोई कोर कसर नहीं छोडते। फिर वह इसका राजनैतिक लाभ लेने की दौड में कैसे पिछड जाए। यह तो हो नहीं सकता क्योंकि राष्ट्रपति चुनाव तो एक बहाना है, असली मकसद तो सत्ता हथियाना है। इसकी बानगी फिलवक्त चल रहे राष्ट्रपति चुनाव की गहमागहमी में साफ तौर पर देखी जा सकती है।

सत्तारूढ राजग ने राष्ट्रपति चुनाव में कानूनविद्, बिहार के राज्यपाल रामनाथ कोविंद को अपना उम्मीदवार क्या बनाया? देष में श्री कोविंद की जाति का अनुराग अलापे जाने लगा, एक पल में दलित का बेटा निर्विरोध रायसिना हिल्स पहंुचते दिखा, पर यह कहानी अधूरी थी। इसी धमाचैकडी में विपक्षी दल भी कहां पिछे रहने वाले थे उन्होंने भी तपाक से नहले पर दहला मारने की फिराक में संप्रग की ओर से मृदुभाषी, पूर्व लोकसभा अध्यक्ष मीरा कुमार का सियासी दलित दाव खेला। जानते हुए कि संख्याबल के आगे नतमस्तक होना पडेगा। मुफिद था जब जीत तय थी तब तो मुंह मोड लिए इसीलिए 13 में से केवल 1 राष्ट्रपति ही दलित समुदाय से आए ना जाने क्यों? अब तो सिर्फ रस्म अदाईगी बाकी है।

खैर! चुनाव लडने का अधिकार सबको है। फलस्वरूप दावेदारी के मामला बराबरी का हो गया, दलित बनाम दलित का, मतों का नहीं! जैसे यह राष्ट्रपति का चुनाव ना होकर जाति-समुदाय के मोहब्बत की अग्निपरिक्षा हो। अनुपालन में महामहिम की आड में दलित प्रेम की होड मची हैं। आपाधापी में यक्ष प्रष्न झंझकोरता है कि किसी जाति-वर्ग विषेष का एकमेव व्यक्ति राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री आदि-इत्यादि बन भी जाए तो क्यां संपूर्ण समुदाय का सहमेव विकास हो जाएगा। अगर ऐसा है तो सभी वर्गो को बारी-बारी से इन पदों पर सुषोभित करने का चलन अविलंब चालु कर देना चाहिए जिससे एक झटके में ही अंत्योदय से सर्वोदय हो जाए। यह बिल्कुल भी मुनासिब नहीं है! क्योंकि नाम, जाति, मजहब और क्षेत्रियता की बोध कथा में समस्या का हल खोजना नाफरमानी है और कुछ नहीं।

इसका नतीजा हम बरसों से देखते आ रहे है, कमोवेष हर जाति-बिरादरी को देष के उच्च पदों पर कार्य करने का अवसर जरूर मिला है। किसी को कम या ज्यादा! परन्तु इसके सहारे समाज में कोई आमूलचूल परिवर्तन परिलक्षित नहीं हुए। इतर बहार आई तो बेहतर नीतियों, योजनाओं और इच्छा शक्तियों के अमलीजामा से। अलबत्ता, महामहिम जैसे सर्वोच्च संवैधानिक, गौरवांमयी पद को जाति-पाति की परिधि में बांधना निरर्थक है। यथोचित यह आसंदी सबसे परे राष्ट्रीय वैभव का प्रतिक और जनतंत्र का यषोगान है, लिहाजा अलौकिक रखना हमारी नैतिक जवाबदेही व जिम्मेदारी है। बावजूद शाष्वत संविधान में नदारद दलित शब्द के ककहरा में ‘‘दलित-दलित’’ की विरूदावली ंिकंकर्तव्यविमूढ करती है। ध्यान रहे! इंसान की योग्यता जाति, धर्म, रंग और परिवेष में समाहित नहीं होती वरन् राष्ट्रयिता, ईमानदारी, विचारधारा, दृढविष्वास और कर्तव्यनिष्ठा पर निर्भर करती है।

हां! यह बात अलग है कि जिन्हें आज तक मौका ना मिला हो उन्हें काबिलयत के बल पर पदनवावत्् करना चाहिए। बकायदा वह अब मिलते दिख रहा है सालों से अंतिम पंक्ति में खडे दलित वर्ग का नुमांईदा देष का दूसरी बार प्रथम नागरिक बनने जा रहा है। खुषगवार, महामहिम के चुनाव की आड में दलित प्रेम की लगी होड नुरा-कुष्ति व नुक्ता-चिनी तक सीमित ना रहकर धरातलीय बन जाए तो क्या कहने। सहोदय, उत्सुकता में उपेक्षित दलित राजनैतिक संजीदगी, लगाव और सहदाव के दायित्व बोध में सिद्वहस्त से प्रतिष्ठापित होगा।

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