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हिन्दुस्तान की आवाज, हेमेन्द्र क्षीरसागर, लेखक व विचारक

बेलगाम बढती आबादी एक विष्वव्यापी समस्या हैं, खासतौर पर अविकसीत और विकासषील देषों के लिए यह और भी अधिक गंभीर हैं। विषेषतः भारत में वृद्धि और विकास को हानि पहॅंुचाते हुए तीव्र गति से बढती जनसंख्या परेषानी का सबक बन चुकी हैं। उधेडबून मंे हम 1.30 अरब हो चुके हैं। इतर, हमारे पास संपूर्ण भू-भाग का केवल 3 अंष हैं, लेकिन हम जहान की कुल जनसंख्या के 17 फीसद हैं। विष्व में हम सर्वाधिक जनसंख्या के मामले में दूसरा क्रम में हैं, वहीं धरा धारिता में सातवाॅं हैं। जनसंख्या दर अमुमन 2 प्रतिषत प्रति वर्ष हैं लिहाज से हर साल एक आस्ट्रेलिया पैदा कर रहे हैं। गति इसी प्रकार रही तो हम निष्चित तौर पर 2050 तक चीन को पछाड देगें, यह आॅंकडे आह्लादित करते हैं। कमोवेष इतने जन इतनी वसुंधरा मेें कैसे विराजेगे? क्योंकि जन-जन की भांति धरती तो नहीं बढाई जा सकती यह तो जितनी की उतनी ही रहेंगी।

बावजूद जनसंख्या बढाने में विविध आयामों की विषेष भूमिका है जिसमें रूढिवादिता, वंषावली और समय पूर्व विवाह जैसी बेतुकी पंरपरा का खासा योगदान है। यह देखा गया हंै कि देर से हुई शादी जैसे 20 या अधिक उम्र वाली लडकी की तुलना में कम उम्र में हुई शादी वाली लडकी के अधिक बच्चे होते हैं। भारत में सभी समुदायों और धर्मो में लडके की प्राथमिकता भी जनसंख्या बढोतरी का प्रमुख व पहला कारक नजर आता हैं। जागरूकता, अज्ञानता उच्च जन्म दर का दूसरा कारक हैं। जनसंख्या अनियोजन के मामले में निरक्षर महिलाओं के पास षिक्षित महिलाओं के मुकाबले अधिक बच्चे होते हैं। निर्धनता को बेपनाह आबादी के मुख्य कारण में गिना जा सकता हैं। निर्धन परिवारों में बच्चें परिवार की आय में योगदान करने के लिए अतिरिक्त हाथों के रूप में देखे जाते हैं। इसीलिए आमतौर पर गरीब लोग अधिक बच्चों की और अग्रसर होते हैं। वे सामान्यतः उनकी षिक्षा, स्वास्थ्य अथवा पालन-पोषण में अधिक निवेष नहीं करते, ऐसा करना बेमतलब समझते है। ये बच्चे आजीवन निरक्षर और अकुषल श्रमिक रहते हैं। और अपनी जीवन की परिस्थितियों को सुधारने में सदा अक्षम रहते हैं।

कदमताल, आबादी की चपेट में समाज के सभी वर्ग प्रकृति का विदोहन और आर्थिक लाभों की पहुॅंच से दूर होते जा रहे हैं। साथ ही पर्यावरण, आर्थिक, शैक्षणिक, औद्योगिक और सामाजिक विकास की गाथा में अनेकों बाधाएं सामने आ रही हैं। इससे संसाधनों की बढी हुई माॅंगों, सुविधाओं और सेवाओं के रूप में रोटी, कपडा, मकान, स्वास्थ्य, षिक्षा और रोजगार आदि आधारभूत आवष्यकताओं को सुनिष्चित करने के लिए दबाव बढता जा रहा हैं। फलस्वरूप धरती के दोहन से एक दूषित समाज और प्रदूषित वातावरण का निर्माण हो रहा हैं। भलाई के वास्ते महिला-पुरूष दोनों को समान रूप से दवाई, पढाई और कमाई के साधन मुक्मल करवाना ही होगा।

अलबत्ता, अनाप-षनाप जनसंख्या विस्फोट ने प्राकृतिक, सामाजिक-आर्थिक विकास की चाल को बुरी तरह से प्रभावित किया हैं। अतः जनसंख्या नियंत्रण और स्थिरीकरण के लिए जनसंख्या संबंधी समस्याओं को सभी स्तरों में निराकृत करने की आवष्यकता हैं। तभी 3 फीसद जमीन के मुकाबले 17 फीसद जन के औसत को कम किया जा सकता है। यही हम सब का नैतिक दायित्व ही नहीं कर्तव्य है कि इसे अमली जामा पहनाने में कोई कोर कसर ना छोडे। पहल से जन और जमीन का संतुलन बना रहेगा नहीं तो अनावष्यक बोझिल दबाव से आने वाले समय में चुटकी भर धरा मंे मुट्ठी भर लोगों का रहना नामुनकिन हो जाएगा। यह जनसंख्या विस्फोट की खुल्ली-खुल्ली संभावी आहट है, यथेष्ट छोटा परिवार, सुखी परिवार और विकसित देष की मीमांसा को अपनाना ही एकमेव विकल्प है।


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