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हिन्दुस्तान की आवाज, हेमेन्द्र क्षीरसागर, लेखक व विचारक

जय जवान! जय किसान! का उद्घोष! राष्ट्रधर्म व राजधर्म की राजनीति के शुचितक पूर्व प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने देष में हरित क्रांति और रक्षा शक्ति के भाव से एक कंधे पर हल तथा दूसरे कंधे बंदूक रखे जाने के निहितार्थ किया था। जो आज भी गुले-गुलजार है सराबोर सीमा पर जवान! और खेत में किसान! कंधे पर बंदूक व हल उठाये वतन के निवाले और हवाले सीना तान खडे है। बदौलत एक भारत, समृद्ध भारत, मजबूत भारत और बढता भारत शान से विराजित है। लगता है यह सत्ता के लिए ललायित राजनीतिज्ञों को रास नहीं आया इसीलिए उन्होंने राजपाट की चाहत में अमन की फिजा बिगाडने का बीडा उठाया। इस चाल का पहला निषाना बना किसान, जिसके कंधे पर हल की जगह राजनीति की बंदूक रख दी गई।

बरबस तरकष से निकली गोली का षिकार बना तो स्वयं किसान। वीभत्स, एक ही झटके में 6 अन्नदाता, प्राणदाता के पास हालही में पहुंच गए। दुःखद प्रसंग शांतिप्रिय स्थिति में चल रहे किसान आंदोलन में कुत्सित अपना राजनैतिक उल्लू सीधा करने खलल ना डालते तो निरीह, बेगुनाह किसानों की जान ना जाती। अभी! अर्थी उठी नहीं थी और किसान की फाटक पर नाटक करने वाले नेताओं के इषारे पर आगजनी और तोड-फोड से बेवजह शासकीय व निजी संपति नेस्तनाबूत हो गई। क्यां इसकी जवाबदेही बेमतलब की नेतागिरी करने वाले सत्तालोलुप लेगें? विडंबना कहें या दुर्भाग्य यह हृदय विदारक दर्दनाक हादसा गुजरा तो कहां देष के दिल मध्यप्रदेष की उपजाऊ धरा मंदसौर में।

जहां किसान आंदोलन के नाम पर जमकर राजनीतिक गोलीबारी जारी है, जिसकी चिंगारी सूबे में फैलती जा रही हैं। जिसे हवा देने का काम कर रहा है प्रदेष का मुख्य विपक्षी दल कांगे्रस। फिलवक्त पार्टी ने सारा कामधाम छोडकर एक राग अलापना चालु रखा है किसान, किसान और केवल किसान। पार्टी के छोटे-बडे और सबसे बडे नेता का एक ही गाना है किसान के लहु से भीगीं मंदसौर की सरजमीं पर जाना। ना जाने वह वहां क्यों जाना चाहते है दर्द पर मल्हम लगाने या कुरेदने किवां किसान के बहाने सत्ता हथियाने? हालांकि देखा जाय तो वाकई में कांगे्रस का यह प्रलाप काबिलेगौर है कि किसान पेरषान व हैरान है। काष! इतनी चिंता अपने शासन के दौरान की होती तो सब को खुषहाल रखने वाला किसान बेहाल ना रहता।

बहरहाल, किसान के हालात किसी से छुपे नहीं है सालों से किसान छला जा रहा है। पहले राजा-महाराजा, जमीदार, जागीरदार, मालगुजारों और अंगे्रजों ने इसे निचोडा फिर सरकारों ने इनसे मुंहमोडा। अब राजनैतिक जोड-तोड ने इनका दम तोडा। इतने पर भी फसल के उचित दाम, कीटनाषक दवाए, महंगी बिजली, सूखा, अकाल और कंगाली व तंगहाली के नाम पर व्वस्थाओं ने किसान को रगड-रगड कर मरोडा। तथापि दिल नहीं भरा तो किसान की आड में सत्ता की होड लगी, राजनीति की दौड में वोट के खातिर किसान रूपी पैदावार का कारोबार हुआ। बावजूद पेट काट कर अपना, दूसरे का पेट भरा, ना जानी उसने कूटनीति की तो सिर्फ खेती ऐसा है अन्नदाता।

जाहिर है जब-जब खेती का वाजिब हक और अधिकार मांगने का वक्त आया तब-तब मुखौटाधारी घुसपेठियों ने किसानों की लडाई को राजनीति की भेट चढा दी। बेबस सत्ता और विपक्ष के खेल में किसान ने प्राणों की आहुति दी। आह्लादित नुरा-कुष्ति और नुक्ता-चिनी के चक्कर में गुनाहगार छू मंतर हो गए। अभिषप्त मिला तो क्या कागज के चंद टुकडें, घडियाली आंसु, थोडी सी रियायत और कुर्बानी का तमगा और कुछ नहीं। आखिर! यह सिलसिला कब तक चलेगा, इसे बंद करना ही पडेगा वरना एक दिन मजबूर किसान हल की जगह बंदूक थाम लेगा। अपरोध किसान को यथोचित राहत, समुचित उपजिय दाम, सुरक्षा, बाजार और नवाचारादि हर हाल में मुहैया कराना होगा। अख्तियारी रवैया से बंदूकधर किसान नहीं बल्कि हलधर किसान दिखाई देगा।


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