लम्बा और टेढ़ा-मेढ़ा रास्ता
(The long and winding road)
37 वर्षीय मुकीम मुमताज़
शेख के लिए लिबरहान आयोग और उसकी
रिपोर्ट कोई मायने नहीं रखने वाली। उन्होंने यह कुबूल किया कि 6 दिसंबर, 1992 को
बाबरी मस्जिद विध्वंस के पश्चात मुम्बई में हुए सांप्रदायिक दंगों की जांच करने वाले
श्रीकृष्ण आयोग के समक्ष गवाही देने के लिए बहुत डरे हुए थे। उन्हें इस बात का कोई
अफसोस भी नहीं है क्योंकि उन्हें लगता है कि जिन लोगों ने आयोग के समक्ष गवाही दी,
किसी भी मामले में उन्हें न्याय नहीं मिला।
2. मुकीम कई प्रकार से बच निकलने में सफल रहे। उनके दिमाग में दंगों की जीती जागती यादें हैं जिसमें उनके पिता की दम घुटने से मौत हो गई थी और वह भी मुश्किल से जान बचा पाए थे। हाल ही में उन्होंने फोटोग्राफी का काम शुरू किया है और उन्हें सभी महत्वपूर्ण राजनैतिक कार्यक्रमों के गले में एक डिजिटल कैमरा लटकाए देखा जा सकता है। उनके हाथ में राड पड़ी है और गाड़ी चलाने में परेशानी होती है। दसवीं कक्षा तक पढ़ाई करने वाले मुकीम अपने लेखन कौषल के प्रति सतर्क थे परंतु अब वह अपना स्वयं का अखबार, ’हिन्दुस्तान की आवाज’ चलाते हैं। वह शादीशुदा हैं और उनके तीन बच्चे हैं और वह जीवन के सफर में आगे बढ़ चुके हैं। बड़ी-बड़ी आंखों वाले, दुबले-पतले मुकीम एक लंबी और अपेक्षाकृत पेचीदा कहानी को सुलझाते हैं। जनवरी 1993 में दंगों के दूसरे चरण में भीड़ के पीछे होने के कारण वह और उनके पिता छतों पर भाग रहे थे, अपने कुछ पड़ोसियों को भीड़ में देखकर उन्होंने मदद के लिए हाथ बढ़ाया। इसके बदले में उन्हें तीन जगह से टूटी बांह मिली। भीड़ ने उनकी घड़ी लूटली, शर्ट उतार फेंकी और मेन रोड में खींचकर उनकी पिटाई की। जब उन्हें होश आया, उन्हें पता नहीं चला कि सैप्टिक टैंक जैसी जगह पर उन्होंने कब खुद को पाया। उनके पिता उनके नीचे और मदद के लिए आवाज लगा रहे थे। जल्दी ही उनकी चीखें बंद हो गई। तकरीबन 30 घंटों पश्चात एक पुलिसवाले ने मुकीम को बचाया, जिनके प्रति उपकार जताने के लिए मुकीम उनके सम्पर्क में रहते हैं।
2. मुकीम कई प्रकार से बच निकलने में सफल रहे। उनके दिमाग में दंगों की जीती जागती यादें हैं जिसमें उनके पिता की दम घुटने से मौत हो गई थी और वह भी मुश्किल से जान बचा पाए थे। हाल ही में उन्होंने फोटोग्राफी का काम शुरू किया है और उन्हें सभी महत्वपूर्ण राजनैतिक कार्यक्रमों के गले में एक डिजिटल कैमरा लटकाए देखा जा सकता है। उनके हाथ में राड पड़ी है और गाड़ी चलाने में परेशानी होती है। दसवीं कक्षा तक पढ़ाई करने वाले मुकीम अपने लेखन कौषल के प्रति सतर्क थे परंतु अब वह अपना स्वयं का अखबार, ’हिन्दुस्तान की आवाज’ चलाते हैं। वह शादीशुदा हैं और उनके तीन बच्चे हैं और वह जीवन के सफर में आगे बढ़ चुके हैं। बड़ी-बड़ी आंखों वाले, दुबले-पतले मुकीम एक लंबी और अपेक्षाकृत पेचीदा कहानी को सुलझाते हैं। जनवरी 1993 में दंगों के दूसरे चरण में भीड़ के पीछे होने के कारण वह और उनके पिता छतों पर भाग रहे थे, अपने कुछ पड़ोसियों को भीड़ में देखकर उन्होंने मदद के लिए हाथ बढ़ाया। इसके बदले में उन्हें तीन जगह से टूटी बांह मिली। भीड़ ने उनकी घड़ी लूटली, शर्ट उतार फेंकी और मेन रोड में खींचकर उनकी पिटाई की। जब उन्हें होश आया, उन्हें पता नहीं चला कि सैप्टिक टैंक जैसी जगह पर उन्होंने कब खुद को पाया। उनके पिता उनके नीचे और मदद के लिए आवाज लगा रहे थे। जल्दी ही उनकी चीखें बंद हो गई। तकरीबन 30 घंटों पश्चात एक पुलिसवाले ने मुकीम को बचाया, जिनके प्रति उपकार जताने के लिए मुकीम उनके सम्पर्क में रहते हैं।
वादे नहीं निभाए गए।
पुरानी बस्ती में अब भी उनके दोस्त हैं। उन्हें अपने पुराने घर से बड़ा लगाव है और वह मानते हैं कि दंगाइयों का कोई मजहब नहीं होता है। उन्होंने इंसाफ अल्लाह पर छोड़ दिया है। बाबरी मस्जिद विध्वंस और मुम्बई में सबसे भीषण सांप्रदायिक हत्याकांड जिसमें 1000 लोगों की हत्या हुई थी, को हुए 17 वर्ष बीत चुके हैं। सत्तारूढ़ कांग्रेस-एनसीपी की सरकार श्रीकृ्ष्ण आयोग की रिपोर्ट को लागू करने का वचन देती रहती है जबकि इसका उल्टा होने का हर साक्ष्य मौजूद है। मुकीम के विपरीत, फारूख मापकर नाम का एक सुरक्षा गार्ड जो 10 जनवरी, 1993 को हरि मस्जिद में हुई पुलिस फायरिंग में घायल हो गया था, ने श्रीकृष्ण आयोग के सामने गवाही दी। मस्जिट में घुसकर पुलिस द्वारा फायरिंग किये जाने से सात लोगों की मौत हो गई थी। न्याय के लिए मापकर ने लंबी तलाश की है जो अब तक समाप्त नहीं हुई है। उस पर पुलिस ने दंगे करने का अभियोग लगाया था जिसके लिए वह 1993 से केस लड़ता रहा। वह ; फरवरी 2009 में ही सभी आरोपों से बरी हो पाया। हालांकि, उसके डटे रहने के कारण 28 अगस्त, 2006 को अपराध के 13 वर्ष बाद पुलिस वालों के खिलाफ प्राथमिकी दायर की गई। पिछले वर्ष बाम्बे हाईकोर्ट ने हरि मस्जिद फायरिंग मामले की जांच को सीबीआई से कराने का आदेश दिया था। राज्य सरकार मामले को सीबीआई को सौंपने पर सहमत थी परंतु सीबीआई ने अन्य कारणों के साथ-साथ मामलों का अत्यधिक बोझ होने का हवाला देते हुए मामला स्वीकार करने में अपनी असमर्थता जताई थी। बाम्बे हाईकोर्ट के न्यायमूर्ति आर.एस. मोहिते और एफ.आई. रिबैलो ने अपने 18 दिसंबर, 2008 के आदेश में सावधानी के साथ सीबीआई की आपत्तियों के विरूद्ध व्यवस्था देते हुए कहा कि यह सुनिश्चित कराना राज्य का प्राथमिक दायित्व है कि किसी भी संप्रदाय को यह न लगे कि उनकी षिकायत को सुनने वाला कोई नहीं है या कानून सभी नागरिकों पर समान रूप से लागू नहीं होता। न्यायालय ने कहा, हमें लगता है कि इस मामले पर अब तक जो कार्रवाई हुई है वह चिंताजनक है और इसका तुरंत निवारण आवश्यक है।
पुरानी बस्ती में अब भी उनके दोस्त हैं। उन्हें अपने पुराने घर से बड़ा लगाव है और वह मानते हैं कि दंगाइयों का कोई मजहब नहीं होता है। उन्होंने इंसाफ अल्लाह पर छोड़ दिया है। बाबरी मस्जिद विध्वंस और मुम्बई में सबसे भीषण सांप्रदायिक हत्याकांड जिसमें 1000 लोगों की हत्या हुई थी, को हुए 17 वर्ष बीत चुके हैं। सत्तारूढ़ कांग्रेस-एनसीपी की सरकार श्रीकृ्ष्ण आयोग की रिपोर्ट को लागू करने का वचन देती रहती है जबकि इसका उल्टा होने का हर साक्ष्य मौजूद है। मुकीम के विपरीत, फारूख मापकर नाम का एक सुरक्षा गार्ड जो 10 जनवरी, 1993 को हरि मस्जिद में हुई पुलिस फायरिंग में घायल हो गया था, ने श्रीकृष्ण आयोग के सामने गवाही दी। मस्जिट में घुसकर पुलिस द्वारा फायरिंग किये जाने से सात लोगों की मौत हो गई थी। न्याय के लिए मापकर ने लंबी तलाश की है जो अब तक समाप्त नहीं हुई है। उस पर पुलिस ने दंगे करने का अभियोग लगाया था जिसके लिए वह 1993 से केस लड़ता रहा। वह ; फरवरी 2009 में ही सभी आरोपों से बरी हो पाया। हालांकि, उसके डटे रहने के कारण 28 अगस्त, 2006 को अपराध के 13 वर्ष बाद पुलिस वालों के खिलाफ प्राथमिकी दायर की गई। पिछले वर्ष बाम्बे हाईकोर्ट ने हरि मस्जिद फायरिंग मामले की जांच को सीबीआई से कराने का आदेश दिया था। राज्य सरकार मामले को सीबीआई को सौंपने पर सहमत थी परंतु सीबीआई ने अन्य कारणों के साथ-साथ मामलों का अत्यधिक बोझ होने का हवाला देते हुए मामला स्वीकार करने में अपनी असमर्थता जताई थी। बाम्बे हाईकोर्ट के न्यायमूर्ति आर.एस. मोहिते और एफ.आई. रिबैलो ने अपने 18 दिसंबर, 2008 के आदेश में सावधानी के साथ सीबीआई की आपत्तियों के विरूद्ध व्यवस्था देते हुए कहा कि यह सुनिश्चित कराना राज्य का प्राथमिक दायित्व है कि किसी भी संप्रदाय को यह न लगे कि उनकी षिकायत को सुनने वाला कोई नहीं है या कानून सभी नागरिकों पर समान रूप से लागू नहीं होता। न्यायालय ने कहा, हमें लगता है कि इस मामले पर अब तक जो कार्रवाई हुई है वह चिंताजनक है और इसका तुरंत निवारण आवश्यक है।
जांच चल रही थी कि आष्चर्यजनक घटना के रूप में 28 अगस्त को
महाराश्ट्र सरकार सीबीआई जांच पर रोक लगाने के लिए सर्वोच्च न्यायालय में चली गई।
राज्य ने प्रतिविरोध किया कि उन्होंने हरि मस्जिद फायरिंग में षामिल पुलिसकर्मी
निखिल कापसे के खिलाफ विभागीय जांच की है और कहा कि फायरिंग अंधाधुन्ध नहीं की गई
थी। सर्वोच्च न्यायालय ने सीबीआई जांच पर रेाक लगा दी। मापकर के पक्ष में लड़ रहे
सामाजिक कार्यकर्ताओं और वकीलों के लिए यह अंतिम चोट थी। श्रीकृश्ण आयोग ने निर्णय
दिया कि पूरे प्रकरण में कापसे की भूमिका निंदनीय थी और वह अनुचित फायरिंग के लिए
ही नहीं बल्कि अमानवीय और क्रूरतापूर्ण बर्ताव के लिए दोशी है। सर्वोच्च न्यायालय
में दंगों से जुड़ी कई याचिकाएं लंबित हैं और उनमें से वकील षकील अहमद द्वारा दायर
की एक याचिका न्यायमूर्ति (सेवानिवृत्त) श्रीकृश्ण द्वारा अपनी रिपोर्ट में नाम लिए
गए 31 पुलिसकर्मियों की संलिप्तता के संबंध में है। अनेकों केस लड़ने वाले वकील
युसुफ मुछाला पूरी तरह विष्वस्त हैंै कि सरकार निष्चित रूप से न्याय के लिए कुछ नहीं
करने वाली। यहां तक कि मीडिया भी इस मामले को जनता की चेतना में बनाए नहीं रख सका।
मापकर सर्वोच्च न्यायालय में
पहुचे लेकिन एक और धक्का लगा।
बाम्बे उच्च न्यायालय ने एक निचली अदालत के फैसले को न्यायोचित और विधि सम्मत करार
देते हुए पुष्टि कर दी और 9 जनवरी 1993 को हुए सुलेमान उस्मान बेकरी फायरिंग वाले
अन्य मामले में मुंबई के संयुक्त पुलिस आयुक्त (अपराध) आर.डी. त्यागी और आठ अन्य
पुलिसकर्मियों को जिन पर जबरदस्ती घुसकर नौ लोगों की हत्या करने का अभियोग लगाया गया
था, को बरी कर दिया गया। इस मामले की जांच न्यायमूर्ति (सेवानिवृत्त) श्रीकष्ण ने
की थी और कहा था ’आयोग का यह मत है कि पुलिस की कहानी से विश्वास नहीं प्रकट होता’।
न्यायमूर्ति मृदुला भाटकर ने 16 अक्तूबर के फैसले में निचली अदालत के फैसले को
बरकरार रखते हुए कहा कि न्यायधीश ने सही आकलन किया है कि बेकरी में फायरिंग
अनावष्यक थी। उनका कहना है ’वास्तव में यह पुलिस द्वारा किया गया एक क्रूर और नृषंस
कृत्य था। सांप्रदायिक दंगों के मामले में दयालु और संवेदनशील रवैये की उम्मीद की
जाती है। आदेश में आगे है ’हालांकि यह सब कानून के दायरे में रहकर किया जाना चाहिए
कोई अपराध कितना भी गंभीर और जघन्य क्यों न हो एक निरपराध पर मुकदमा नहीं चलाया जा
सकता’। अदालत ने विचार प्रकट किया कि त्यागी और अन्य के विरूद्ध इसके लिए पर्याप्त
प्रमाण नहीं है कि उनकी बेकरी के लोगों की हत्या करने की सामूहिक इच्छा थी या
उन्होंने आपराधिक उल्लंघन का कृत्य किया है या उसे करने को प्रेरित किया है। राज्य
सरकार ने 2001 में 18 पुलिसकर्मियों के खिलाफ मुकदमा दर्ज कराया था किन्तु उनमें से
त्यागी समेत नौ को 2003 में ट्रायल कोर्ट द्वारा बरी कर दिया गया था। आश्वासनों के
बावजूद सरकार ने रिहाई के खिलाफ अपील नहीं की। बल्कि यह काम बेकरी के करीब स्थित
मदरसे में षिक्षक नुरूल हुदा मकबूल अहमद पर छोड़ दिया गया। इस बार सर्वोच्च न्यायालय
में अपील करने की फिर उनकी ही बारी है।
Compiled By: Prem Kumar
Source:- The Hindu , 04 Dec , 2009
WWW.UPSCPORTAL.COM
Source:- The Hindu , 04 Dec , 2009
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